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कविता

माँ

अखिलेश कुमार दुबे


माँ,
बूढ़ी माँ
जिनकी कमर
अब बहुत ज्यादा
झुक गई है। खड़ी होती हैं
मशक्कत और सहारे से

जा रही हैं,
दूर, बहुत दूर
'अपनों' के पास रेल से,
वही रेल कोसती हैं,
जिसे वे अक्सर
इसलिए कि,
उन्हें प्लेटफार्म पर
चलना पड़ता है
मीलों।

उस पार जाने
रेलवे स्टेशन से
और मिलने
अपने
बेटे-बेटियों
और
भरे-पूरे परिवार से
जो, धीरे-धीरे
दूर जाते रहे हैं उनसे
भूख और प्यास से।


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